सदस्यों के दल बदल पर विधानसभा अध्यक्षों के फैसले को न्यायालयों से मिल रही चुनौती से विधायिका चिंतित है। सवाल साख पर खड़ा होने लगा है, लेकिन इसका हल जल्द निकलता नहीं दिख रहा है। देहरादून में चल रहे दो दिवसीय सम्मेलन में कई पीठासीन अधिकारी इसका फैसला राजनीतिक दल पर छोड़ देने के पक्ष में नहीं दिखे। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला द्वारा गठित समिति इस पर अगले वर्ष लखनऊ की बैठक में अपने सुझाव देगी।
संविधान की दसवीं अनुसूची और अध्यक्ष की भूमिका विषयक परिचर्चा में लोकसभा अध्यक्ष ने आग्रह करते हुए कहा कि दल बदल पर अध्यक्ष ऐसा निर्णायक और निष्पक्ष फैसला लें, जिस पर कोई सवाल नहीं उठे। अगर न्यायपालिका निष्पक्षता पर सवाल करने लगे, तो यह हम सब के लिए चिंता की बात है। बिहार विधानसभा के अध्यक्ष विजय चैधरी ने इस पर प्रस्ताव रखा, जिस पर व्यापक चर्चा हुई। विजय चैधरी ने कहा कि संविधान की 10 वीं अनुसूची में एक बार फिर सुधार की जरूरत है। इसमें अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि अध्यक्ष को कितने दिनों में इस पर फैसला लेना है।
ऐसे में इसके दुरुपयोग के मामले सामने आते हैं। इसी तरह इसे भी स्पष्ट करने की जरूरत है कि पार्टी के व्हिप के खिलाफ पड़े मत का क्या होगा, जिसे अभी तक मान्य किया जाता है। इसे अमान्य करने से इस समस्या का समाधान हो जाएगा। वैसे, कई विधानसभा अध्यक्ष सदस्यों द्वारा इस्तीफा देकर दूसरी पार्टी को समर्थन देने के नए तरीके पर चिंतित दिखे। कर्नाटक के हाल के मामले का जिक्र करते हुए राजस्थान के विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी ने दल बदल का निर्णय उसी राजनीतिक दल पर डालने की पैरोकारी की, जिसके टिकट पर वह जीत कर आए हैं। उन्होंने तर्क दिया कि पार्टी के चिह्न, विचारधारा और घोषणापत्र पर जनप्रतिनिधियों का चुनाव होता है। मूलतः देश दल आधारित लोकतंत्र है। ऐसे में पार्टी के सुझाव पर चुनाव आयोग को इस पर फैसला लेना चाहिए। अध्यक्ष को विधायिका के सकुशल संचालन तक की ही भूमिका होनी चाहिए। वहीं दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष रामनिवास गोयल ने दल बदल को भी अपराध श्रेणी में डालने की वकालत करते हुए कहा कि ऐसे प्रविधान होने चाहिए, जिसमें पार्टी बदलने वाले को एक निश्चित अवधि तक चुनाव लडने पर पाबंदी लगा दी जाए। इसके साथ उन्होंने सभी विधानसभाओं के रूलबुक को एक समान रखने की जरूरत बताई।